स्तुति: संत महिमा
स्तुति
परमात्मा के सम्मूख अपने हृदय के भावों को श्रद्धा, विश्वास भक्ति एवं प्रेम के साथ विनम्रतापूर्वक प्रस्तुत करने को स्तुति कहते हैं उसमें प्रभु का गुणगान किया जाता है। भक्त अपने दोषों को गिनता है। क्षमा याचना करता ह। अन्त में मुक्ति पाने की प्रार्थना करता है। स्तुति में संसारिक सुखों की प्राप्ती के लिए भी विनती की जाती है किन्तु सन्त इसको शुभ नही मानते। सन्तगण आत्मज्ञान तथा भगवत प्राप्ति के लिए ही स्तुति करते हैं क्योंकि वे काम, क्रोध, लोभ, मोह और राग द्वेष आदि विकारों से छुटकारा चाहते हैं। सन्त पानप देव की इस स्तुति का मनन कीजिए –
का विनती तेरी करुँ बनाय,
अपरम पार अगम गत तेरी, कहनी कथनी कही न जाय।।
हूँ तो कूड़ कपटी बहु कामी, मोमें गत मत एको नाय।
तुम बिन ठौर और न कोई, राखो भावै देओं बहाय।।
आन देव सब मनो बिसारे, निस बासर प्रभु तुम्हारी चाह,
जित देखूँ तित् तुम्ही दीखों, लाग रहयो तुम्हारी सरनाय।।
प्रभु का यह गुणगान या स्तुति संसार के प्रत्येक धर्म का अनिवार्य अंग है।